महाभारत की कथा जैसे-जैसे आगे बढ़ती जा रही थी, राजा जनमेजय का आश्चर्य भी बढ़ता जा रहा था. वैशंपायन जी ने जब राजन को बताया कि परम पुनीता कहलाने वाली गंगा ने अपने ही सात पुत्रों को नदी में बहा दिया था, उनका मन खिन्न हो उठा. वह तब शांत हो सका जब वैशंपायन जी ने गंगा और उन सातों नवजातों के पूर्व जन्म के रहस्य उसके सामने खोले. तब जनमेजय ने कहा- हे मुनिवर वैशंपायन जी! क्या पूर्व जन्म के कर्म इतने प्रबल होते हैं कि उनका प्रभाव जीवों के अगले जन्म तक बना रहता है?
वैशंपायन जी बोले- राजन! यही सृष्टि का नियम है. आपने ठीक प्रश्न किया है. कर्म का प्रभाव बहुत प्रबल होता है. आत्मा जब पुराने शरीर को त्यागकर नया शरीर धारण करती है, तब उसे अपने कर्मों के अनुसार भोग तो भोगना ही पड़ता है. कई कर्मों का निस्तारण तो एक ही जन्म में हो जाता है, लेकिन बहुत से कर्मों के कारण ही आत्मा का जन्म और मृत्यु का चक्र चलता रहता है. सृष्टि संचालन का आधार यही कर्म है. ईश्वर भी इससे परे नहीं है.
तब जनमेजय ने प्रश्न किया- महामुने! मैं कर्म के इस रहस्य को धीरे-धीरे समझ पा रहा हूं. अब आप मुझे यह बताइए कि देवी गंगा और महाराज शांतनु का जो वह आठवां पुत्र था. वह कहां गया? महाराज शांतनु अकेले क्यों रह गए? उनका जीवन तो ढलती सांझ की तरह हो गया, जिसमें अंधकार बढ़ता जाता है और अपनी भी परछायी साथ छोड़ते जाती है.
उग्रश्रवा जी ने नैमिषारण्य में महाभारत की कथा सुन रहे ऋषि शौनक के शिष्यों से कहा- ऋषिगणों! महाराज जनमेजय के इस तरह प्रश्न करने पर वैशंपायन जी कुछ देर मौन रहे और फिर उन्होंने कहना शुरू किया. राजन! सात पुत्रों को नदी के जल में मुक्ति देने के बाद देवी गंगा जब आठवें पुत्र को मुक्त करने जा ही रही थीं कि इसी दौरान क्रोधित हुए राजा शांतनु ने उन्हें रोक दिया. देवी गंगा के कार्य में हस्तक्षेप करते ही महाराज शांतनु के रूप में जन्मे महाभिष और देवी गंगा दोनों ही ब्रह्मदेव के शाप से मुक्त हो गए.
इसी के साथ वह आठवां वसु, जिसे ऋषि वशिष्ठ के शाप के कारण अभी धरती पर अपनी पूरी आयु जीनी थी, वह जीवित रहा. देवी गंगा उसे कुरुकुल का उत्तराधिकारी मानकर अपने साथ ले गईं और उसे शस्त्र-शास्त्र हर विधा से शिक्षित किया. उस बालक ने देवगुरु बृहस्पति से सभी वेद-वेदांग की शिक्षा प्राप्त की. सप्तऋषियों ने उन्हें हर कला और विद्या में प्रवीण बना दिया और खुद भगवान परशुराम ने उन्हें धनुर्विद्या के हर कौशल में प्रवीण कर दिया. इतने महान गुरुओं के संपर्क और चरणों में रहकर गंगा का वह आठवां पुत्र देवव्रत अल्पायु में ही विद्याधर बन गया और किशोरावस्था आते-आते रणकौशल में पारंगत होकर अजेय हो गया.
इधर, हस्तिनापुर के राजमहल में महाराज शांतनु का जीवन गंगा के जाने के बाद से नीरस हो चला था. वह अपने आप को अधिक से अधिक प्रजा के कार्यों में व्यस्त करके रखते थे, लेकिन जिस राज्य की प्रजा पहले ही संतुष्ट हो वहां अधिक से अधिक कितना कार्य शेष होगा. राजन ने खुद को जन कल्याण से जोड़ दिया. दीनों के लिए उनके दरवाजे हमेशा खुले रहते, लेकिन राज्य में कोई दीन हो या खुद को दीन समझे तब तो. अधिकारी निष्ठावान थे, और धर्मध्वज के तले नैतिकता से ही अपना हर कार्य करते थे. इसलिए राज्य में तो चारों ओर सुख ही था, लेकिन सुख नहीं था तो राजा के खुद के हृदय में. जिसे वर्षों पहले देवी गंगा एक उजाड़ नगरी बनाकर चली गई थीं. छत्तीस वर्ष तक पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए राजन ने वनवासी जैसा ही जीवन बिताया.
इसी तरह एक दिन, राजा शांतनु गंगा तट पर यूं ही घूम-टहल रहे थे. अचानक उन्होंने देखा कि गंगा की लहर में हर दिन की तरह वह तेजी, वह उफान नहीं है. नदी का प्रवाह बहुत कम रह गया है, जिसके कारण जल का स्तर भी कम ही दिखाई दे रहा है. अचानक गंगा जी के जल स्तर में आई इस कमी का क्या रहस्य है? इस प्रश्न को मन ही मन विचार करते हुए महाराज शांतनु तट के ही साथ आगे बढ़ते रहे.
आगे बढ़कर उन्होंने खोज की, तब पता चला कि एक बड़ा मनस्वी और सुंदर कुमार नदी तटपर ही दिव्यास्त्रों का अभ्यास कर रहा है. उसने ही अपने बाणों के प्रभाव से गंगा जी के बीचों-बीच बाणों की एक दीवार बना रखी है. बाणों की इसी दीवार के कारण गंगा नदी में जल का प्रवाह घट गया था. महाराज शांतनु, उस कुमार का ऐसा कौशल देखकर आश्चर्य में भर गए. महाराज शांतनु ने अपने पुत्र को पैदा होते समय ही देखा था, उसके बाद तो देवी गंगा उसे अपने साथ ले गई थीं, इसलिए वह उसे पहचान नहीं सके. उस कुमार ने महाराज शांतनु को मोहित कर दिया और जब तक वह उसके पास जा पाते तब तक वह ओझल हो गया.
अभी महाराज शांतनु कुछ समझ पाते तभी उन्होंने देखा का श्वेत वस्त्र पहने हुए और स्फटिक जैसे दिव्य आभूषणों से सजी हुई गंगा खुद उसी नारी रूप में उनके सामने चली आ रही हैं, जिस रूप में वह कई वर्षों पहले उनकी पत्नी की तरह रही थीं. राजन ने जब इतने वर्षों बाद गंगा को अनायास अपने सामने देखा तो उन्हें अपना वह आठवां पुत्र भी याद आ गया, जिसे देवी गंगा अपने साथ ले गई थीं. तब शांतनु ने गंगा से कहा- मुझे उस कुमार को दिखाओ, जिसने अपने धनुष-बाण से यह अलौकिक कार्य किया है. तब देवी गंगा उसी कुमार का दाहिना हाथ पकड़कर राजा शांतनु के सामने ले आईं और उससे बोलीं- अपने पिता के चरण स्पर्श करो पुत्र.
फिर वह महाराज से बोलीं- यह आपका आठवां पुत्र है राजन. आपने इसे ही बचा लिया था. यह मेरे पास हस्तिनापुर की धरोहर था. मैं इसे ले गई थी ताकि ममता से इसका पोषण कर सकूं. इसने वशिष्ठ ऋषि से सभी ज्ञान प्राप्त कर लिया है. यह इंद्र के समान ही धनुर्धर है. गुरु बृहस्पति और गुरु शुक्राचार्य से इसने सभी नीतियां सीख ली हैं और शस्त्रधारी भगवान परशुराम भी इसके गुरु रहे हैं. आप धर्म में धीर इस कुमार को अब अपनी राजधानी ले जाइए. मैं इसे आपको सौंपती हूं. ऐसा कहकर गंगा भी जाने लगी. महाराज ने उन्हें रोकने की कोशिश की तब गंगा ने कहा- नहीं महाराज! सृष्टि के नियम विरुद्ध मैं नहीं जा सकती. मैं नदी हूं आगे बढ़ गई तो अब पीछे नहीं लौट सकती. ऐसा कहकर देवी गंगा उन्हीं लहरों में कहीं ओझल हो गईं. कुमार देवव्रत और महाराज शांतनु ने सजल नेत्रों से उन्हें विदाई दी.
फिर वह दोनों हस्तिनापुर आ गए. राजन कुमार देवव्रत की योग्यता, प्रवीणता, उनका धैर्य और साहस देखकर फूले न समाते थे. ऐसे ही किसी एक दिन शुभ मुहूर्त देखकर राजन ने कुमार देवव्रत का युवराज पद पर अभिषेक कर दिया और उन्हें हस्तिनापुर का भावी उत्तराधिकारी बना दिया. प्रजा भी कुमार देवव्रत से प्रेम करती थी और वर्षों बाद हस्तिनापुर में योग्य वंशबेल देखकर फूली न समाती थी.
कुमार ने सारे देश को प्रसन्न कर लिया और सीमाओं पर विजय से पहले उन्होंने प्रजा के हृदय पर विजय प्राप्त की. इस तरह हस्तिनापुर में चार वर्ष बड़े आनंद से बीत गए.
वैशंपायन जी बोले- महाराज जनमेजय! राजा शांतनु अब एक बार फिर प्रसन्न दिखाई देने लगे थे. प्रजा चहुंओर से प्रसन्न थी. राज्य का बहुत सा कार्यभार युवराज देवव्रत ने संभाल लिया था. उनकी देखरेख में राज्य का संचालन सुचारु रूप से हो रहा था. शांति के ऐसे ही अवसर में महाराज शांतनु फिर से अपने पुराने शौक शिकार के लिए जाने लगे थे. एक दिन वह जंगल में शिकार खेलते हुए यमुना तट पर पहुंच गए. यहां उन्होंने देखा कि स्वर्ग की अप्सरा जैसी शोभा वाली एक सुंदरी तट पर नाव खे रही थी. राजन ने उसे देखा तो देखते ही रह गए. वर्षों से मन के भीतर कहीं दबी-छिपी काम भावना एक बार फिर सिर उठाने लगी.
राजन उसकी ओर आकर्षित हुए उसी नाव की ओर बढ़ चले, जिसमें वह कुमारी बैठी थी. राजा बिना कुछ कहे नाव पर बैठ गए. स्त्री ने नाव को दूसरे तट की ओर बढ़ाना शुरू किया. मझधार से कुछ आगे जाने पर स्त्री ने पूछा कि आपको कहां जाना है यात्री? राजा ने कहा- पता नहीं.
कुमारी ने पूछा- तो फिर नाव किस ओर ले चलूं?
शांतनु बोले- जिधर तुम्हारी इच्छा
यह सुनकर वह कुमारी कुछ नहीं बोली और नाव के पतवार चलाती रही. तट आने पर उसने कहा- महोदय! तट आ गया.
राजा बोले- कहां है तट? मैं तो धारा के बीच ही फंसा दिख रहा हूं. तुम मुझे उसी पार ले चलो देवी.
कुमारी बिना कुछ बोले- नाव को फिर उसी दिशा में तैराने लगी, जिधर से वह उसे ले आई थी. इस तरह राजा ने इस तट से उस तट, उधर से इधर, नाव में ही बैठकर कई चक्कर लगाए. तब अंततः राजा ने पूछा- देवी तुम्हारा नाम क्या है? तुम किसकी पुत्री हो और यहां किसके लिए इस नदी में अपनी नाव तैरा रही हो.
राजन के इस तरह पूछने पर उस कन्या ने कहा- महोदय! मैं दाशराज धीवर की कन्या सत्यवती हूं. मेरा नाम मत्स्यगंधा था और अब सुगंधा भी मेरा ही नाम है, लेकिन मेरा परिचय सत्यवती ही है.
यह सुनकर राजा ने अपना परिचय दिया- मैं हस्तिनापुर नरेश शांतनु हूं देवी. यह सुनकर सत्यवती घबराई और जल्दी से नरेश को प्रणाम किया. फिर बोली- मुझसे कोई भूल हुई हो तो क्षमा कीजिएगा राजन. मैं आपसे अपरिचित थी.
यह सुनकर महाराज शांतनु ने कहा- नहीं देवी, तुमने तो मुझे मझधार से निकालकर तट दिखाया है. अब मैं चाहता हूं कि तुम मेरी जीवन की नैया भी पार लगाओ. मैं तुमसे प्रणय निवेदन करता हूं और विवाह कर अपनी पत्नी बनाना चाहता हूं. तब सत्यवती ने कहा- असत्य नही कहूंगी…मेरा हृदय भी आपकी ओर है, फिर भी इस विषय में आपको मेरे पिता से बात करनी चाहिए. मैं उनके ही अधीन हूं.
यह सुनकर राजन तुरंत ही निषादराज की कुटिया की ओर बढ़ चले. वहां उन्होंने दाशराज धीवर से कहा- मैं हस्तिनापुर का नरेश शांतनु हूं, लेकिन आज तुम्हारे द्वार पर एक अनमोल निधि के लिए याचक बन कर आया हूं. दाशराज धीवर ने समझ तो लिया कि राजा की क्या मंशा है, फिर भी नासमझ बनते हुए बोला- मैं भला हस्तिनापुर नरेश को क्या दे सकता हूं? फिर भी आप जो आज्ञा देंगे भाग्य के वश में हुआ तो आप जरूर पा लेंगे. यह सुनकर राजा ने कहा- निषादराज! मैं तुम्हारी कन्या को अपनी पत्नी बनाना चाहता हूं. इसलिए तुमसे इसका हाथ मांगता हूं.
यह सुनकर धीवर हाथ जोड़कर खड़ा हो गया और बहुत विनय से लेकिन दृढ़ होकर कहने लगा. महाराज! जब से यह कन्या मुझे मिली है, इसके शुभ लक्षणों से तो मेरे भाग्य खुल गए हैं. मैं इसके विवाह के लिए चिंतित भी हूं. फिर भी इसके संबंध में मेरी एक इच्छा है. यदि आप इसे अपनी धर्म पत्नी बनाना ही चाहते हैं तो आप शपथ लेकर एक प्रतिज्ञा कीजिए. क्योंकि आप सत्यवादी हैं तो आपके कहने भर से ही मुझे भरोसा हो जाएगा. आपके समान मुझे दूसरा कोई वर कहां मिलता? जब भाग्य खुद चलकर मेरे पास आया है तो मैं इससे चूकना नहीं चाहता.
तब शांतनु ने गंभीर स्वर में कहा- ऐसी क्या शर्त है. अगर देने लायक वचन होगा तो दूंगा नहीं तो कोई बंधन नहीं है. तब निषादराज ने कहा- आप वचन दीजिए कि इसके गर्भ से जो संतान पैदा होगी, वही आपके बाद राज्य की अधिकारी होगी और कोई नहीं.
महाराज शांतनु भले ही उस वक्त काम और वासना के मारे थे, लेकिन फिर भी उनकी बुद्धि दृढ़ थी. उन्होंने दाशराज को ऐसा कोई भी वचन देने से मना कर दिया और हस्तिनापुर लौट आए. अब वह रात-दिन सत्यवती का ही चिंतन करते रहते. वह कई बार तड़के ही रथ लेकर यमुना तट की ओर निकल पड़ते और एक वृक्ष की ओट लेकर सत्यवती को नाव चलाते देखा करते. सांझ होने पर भारी मन से राजधानी लौट आते. यह उनका क्रम बन गया था.
राजकुमार देवव्रत ने पिता की ऐसी चिंतित अवस्था देखी तो उनसे रहा गया. उन्होंने कई बार पिता से इस विषय में बात की लेकिन उनकी ओर से ठंडी ही प्रतिक्रिया मिलती. एक दिन बहुत कुरेदने पर महाराज शांतनु ने सिर्फ इतना कहा- देवव्रत, वैसे तो तुम मेरे लिए हजार पुत्रों से भी श्रेष्ठ एक पुत्र ही बहुत हो. फिर भी वंश परंपरा की तो चिंता है ही. ईश्वर न चाहे कभी ऐसा हो, अगर तुम पर कभी कोई विपत्ति आई तब तो हमारे वंश का विनाश हो जाएगा. हस्तिनापुर फिर अनाथ हो जाएगा.
मैं बहुत से विवाह नहीं करना चाहता, लेकिन वंशबेल के यूं कुम्हला जाने से डरता हूं. महाराज शांतनु की इस तरह की बात सुनकर कुमार देवव्रत ने अपनी बुद्धि से ठीक-ठीक बात का अनुमान तो लगा लिया था, इसके अलावा उन्होंने महाराज के सारथि और वृद्ध मंत्री से सीधी पूछताछ कर महाराज शांतनु के हृदय का सारा रहस्य जान लिया. इसी क्रम में देवव्रत को निषादराज की वह प्रतिज्ञा भी पता चली जो महाराज शांतनु और सत्यवती के विवाह में बाधा बन रही थी.
तब कुमार देवव्रत ने बड़े-बुजुर्ग क्षत्रियों के साथ निषादराज के निवास स्थान की यात्रा की और वहां जाकर खुद ही अपने पिता के लिए उनकी पुत्री की मांग की. निषादराज ने इस गणमान्य सभा के आगे भी वही बात दोहराई जो उसने महाराज शांतनु से कही थी. उसने कहा- हे भरतवंशी कुमार देवव्रत! आपके यहां का इतना सौभाग्यशाली संबंध टूट जाने पर तो इंद्र को भी निराशा होगी. यह कन्या जिन श्रेष्ठ राजा की पुत्री है वह आप लोगों के ही बराबरी के हैं. (सत्यवती चेदि नरेश राजा उपरिचर वसु और अप्सरा आद्रिका की पुत्री थी) उन्होंने मेरे पास कई बार संदेश भेजा कि मैं महाराज शांतनु से इसका विवाह करूं. यहां तक कि देवर्षि असित भी इस कन्या को पाना चाहते थे, लेकिन मैंने उन्हें वापस भेज दिया था.
मैं इसका पालन-पोषण करना वाला पिता ही हूं इसलिए इसके विषय में अधिकार भी रखता हूं. इस विवाह में एक ही दोष है कि सत्यवती के पुत्र का शत्रु बड़ा ही प्रबल होगा. युवराज! जिसके आप शत्रु हो जाएंगे उसका संरक्षण तो देवता भी नहीं कर सकते. मैंने इसीलिए इस विवाह को स्वीकार नहीं किया.
निषाद जब यह बोलकर रुक गया तब गंगापुत्र देवव्रत सभी के बीच खड़े हुए. उन्होंने दृढ़ संकल्प लेकर कहा- निषादराज! मैं शपथ लेकर कहता हूं कि इसके गर्भ से जो पुत्र उत्पन्न होगा वही हमारा राजा होगा. मेरी यह कठोर प्रतिज्ञा है. यह सुनकर निषादराज जो चुप था, वह कुछ कहने को हुआ- उसे देखकर देवव्रत चुप हो गए. तब निषादराज ने कहा- आपके वचन को तो दिशाएं भी नहीं झुठला सकती हैं, फिर भी मेरे मन में संदेह आपकी संतानों को लेकर है, क्या वे सत्यवती के पुत्रों से राज्य नहीं छीनेंगे. तब देवव्रत ने निषाद का आशय समझकर राज्यसभा में और गरजकर कहा-
क्षत्रियों! आप सब सुनें. मैंने अपने पिता के लिए राज्य का त्याग तो पहले ही कर दिया था. अब एक और निश्चय कर रहा हूं. मैं गंगापुत्र देवव्रत, इस आकाश-धरती और दसों दिशाओं को साक्षी मानकर प्रण लेता हूं कि मैं न विवाह करूंगा, न संतान उत्पन्न करूंगा. मैं आजीवन अखंड ब्रह्मचर्य का पालन करूंगा. संतान न होने पर भी मुझे अक्षय लोकों की प्राप्ति होगी. मैं वचन देता हूं कि हस्तिनापुर के सिंहासन पर जो बैठेगा उसमें अपने पिता महाराज की छवि देखते हुए राज्य की सेवा करता रहूंगा.
महर्षि वैशंपायन बोले- राजन जनमेजय! यह भीषण प्रतिज्ञा सुनकर सभा में बैठे सभी लोगों को रोमांच हो आया. देव भी यह प्रतिज्ञा सुनकर सकते में आ गए. निषादराज ने कहा- मैं कन्या देता हूं. उधर, आकाश से पुष्पवर्षा होने लगी और सबने कहा- यह तो भीषण भीष्म प्रतिज्ञा है. दसो दिशाएं भीष्म-भीष्म के नाद से गूंज गईं. तब सर्वसम्मति से महाराज शांतनु और देवी गंगा के पुत्र देवव्रत का नाम भीष्म हो गया. वही इसी नाम से जगत में विख्यात हुए.
इसके बाद देवव्रत भीष्म सत्यवती को अपने रथ पर चढ़ाकर पिता शांतनु के पास ले गए. शांतनु ने जब वहां पुत्र की भीषण प्रतिज्ञा की बात सुनी तो वह गदगद हो गए और रोते हुए कंठ से उन्होंने कहा- पुत्र देवव्रत संसार अब तुम्हें भीष्म नाम से ही पुकारेगा. मैं तुम्हें वर देता हूं निष्पाप पुत्र, तुम जब तक जीना चाहोगे, तबतक जिओगे. काल तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड़ सकेगा. मृत्यु तुम्हारे पास नहीं फटकेगी. तुमसे अनुमति लिए बिना वह तुमतक आएगी ही नहीं. भीष्म ने यह सुनकर पिता के सामने एक और प्रतिज्ञा ली, जब तक हस्तिनापुर को चारों ओर से सुरक्षित नहीं देख लूंगा, प्राण नहीं त्यागूंगा.
भीष्म की भीषण प्रतिज्ञा की चर्चा चारों ओर होने लगी. आखिरकार इसी प्रतिज्ञा के चलते महाराज शांतनु का सत्यवती से विवाह हो सका था.
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तीसरा भाग : राजा जनमेजय ने क्यों लिया नाग यज्ञ का फैसला, कैसे हुआ सर्पों का जन्म?
चौथा भाग : महाभारत कथाः नागों को क्यों उनकी मां ने ही दिया अग्नि में भस्म होने का श्राप, गरुड़ कैसे बन गए भगवान विष्णु के वाहन?
पांचवा भाग : कैसे हुई थी राजा परीक्षित की मृत्यु? क्या मिला था श्राप जिसके कारण हुआ भयानक नाग यज्ञ
छठा भाग : महाभारत कथाः नागों के रक्षक, सर्पों को यज्ञ से बचाने वाले बाल मुनि… कौन हैं ‘आस्तीक महाराज’, जिन्होंने रुकवाया था जनमेजय का नागयज्ञ
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बारहवाँ भाग : अपने ही बच्चों को क्यों डुबो देती थीं गंगा, आठ नवजात राजकुमारों में कैसे जीवित रह गए हस्तिनापुर के पितामह भीष्म?