ये बात वाकई में आज चौंकाने वाली हो सकती है, उनके लिए भी जो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को पसंद करते हैं और उनके लिए भी जो नहीं करते. आखिर ऐसी क्या मजबूरी आ गई गुरु गोलवलकर की कि उन्हें पंडित नेहरू का समर्थन करना पड़ा? फिर समर्थन ही करते, सारा संगठन लगाकर एक-एक स्वयंसेवक को महाराष्ट्र के घर-घर में नेहरू के समर्थन में लिखा अपना पत्र भेजने की जरूरत क्या थी? ये मामला हाल ही में तब भी सामने आया था, जब महाराष्ट्र के राजकोट में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा अनावरित की गई छत्रपति शिवाजी की प्रतिमा गिर गई. जब बीजेपी सरकार पर कांग्रेस इस घटना को लेकर हमलावर हुई तो जवाब में महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने पंडित नेहरू का वही मुद्दा उछाल दिया.
दिलचस्प बात हो सकती है कि शायद फडणवीस को याद ना हो कि उस मुद्दे में नेहरू जी की गलती होते हुए भी गुरु गोलवलकर ने उनका समर्थन किया था. दरअसल ये बात 1957 की है, जब बॉम्बे प्रेसीडेंसी आजादी के बाद बॉम्बे राज्य बन चुका था और गुजरात, महाराष्ट्र दोनों इसी के हिस्से थे. 1 मई 1960 को बॉम्बे राज्य को गुजरात और महाराष्ट्र दो अलग अलग राज्य बनाने से पहले वहां संयुक्त महाराष्ट्र आंदोलन चल रहा था. केन्द्र में पंडित नेहरू की सरकार इससे बड़ी परेशान थी. इंदिरा गांधी निजी तौर पर अपने पिता की सहायता के लिए यहां के दौरे कर रही थीं. यहां तक कि एक बार पंडित नेहरू पर यहां हमला भी हो चुका था.
ऐसे में पंडित नेहरू ने मराठों को खुश करने के लिए एक कार्यक्रम की योजना बनाई. प्रतापगढ़ किले को छत्रपति शिवाजी ने बनवाया था, उसे 300 साल हो गए थे. इसी किले में शिवाजी और अफजल खान की सेनाओं के बीच युद्ध हुआ था. पंडित नेहरू ने शिवाजी की 17 फुट ऊंची कांस्य प्रतिमा का निर्माण करवाया और उसे 1957 में लगाने का ऐलान कर दिया. खुद पंडित नेहरू 30 नवम्बर 1957 को उस प्रतिमा का अनावरण करने वाले थे. लेकिन ये फैसला उलटा पड़ गया. दरअसल मराठी नेहरू से पहले से ही नाराज थे, नेहरू जी के इस ऐलान से मानो घाव हरे ही हो गए.
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दरअसल पंडित नेहरू ने अपनी किताब ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ में छत्रपति शिवाजी को छोटा मोटा सामंत, उपद्रवी जैसे कुछ शब्दों के प्रयोग के साथ उनको छोटे से भाग में समेट दिया था. (हालांकि पवन खेड़ा का दावा है कि 1936 में पहला अंक आते ही उन्हें गलती का अहसास हुआ था, उन्होंने पत्र लिखकर खेद जताया था और उसके अगले एडीशन में संशोधन करवा दिया था). लोगों का कहना था कि ऐसे व्यक्ति के हाथों, जो शिवाजी महाराज का सम्मान ही ना करता हो, उनके हिंदवी साम्राज्य के स्वप्न का जिसे पता तक ना हो, जिसने इस बात की महत्ता को ही ना समझा हो कि कैसे शिवाजी ने मुगलों की ताकत पर ना केवल लगाम लगाई, बल्कि उनके सामने तमाम विपरीत परिस्थितियों के बावजूद खड़े रहकर भारत के सम्मान को बचाए रखा, उस व्यक्ति के हाथ कैसे शिवाजी महाराज की प्रतिमा का अनावरण हो सकता है.
इस विरोध की खबरें पंडित नेहरू को भी मिल रही थीं, और गुरु गोलवलकर को भी. संघ के लिए छत्रपति शिवाजी उनके मूल प्रेरणास्रोत थे. संघ के शुरूआती स्वयंसेवक तो संघ का नाम भी शिवाजी से जोड़कर ‘जरी पटका मंडल’ रखना चाहते थे. ऐसे में छत्रपति शिवाजी से जुड़ा कोई भी मुद्दा संघ उसमें हस्तक्षेप ना करे, रुचि ना दिखाए, नजर ना रखे. ये नहीं हो सकता था. तब भी नहीं हुआ. गुरु गोलवलकर ने संवेदनशीलता के साथ उस मुद्दे को गहराई से समझा. उनको समझ आ रहा था कि पंडित नेहरू छत्रपति शिवाजी की मूर्ति लगवाकर अपनी गलती को सुधारना चाहते हैं.
लेकिन उसके चलते हो ये रहा था कि उन दिनों जो भाषाई आंदोलन चल रहा था, वो और भी ज्यादा भड़काया जा रहा था. इस मुद्दे को भी मराठी अस्मिता, मराठी भाषा से जोड़ा जा रहा था. उनको लगा ऐसे तो छत्रपति शिवाजी हिंदवी साम्राज्य के नहीं बल्कि केवल मराठियों के आराध्य बनकर रह जाएंगे. इससे नुकसान पूरे देश का होगा. उन्हें लगा कि नेहरू जो भी कुछ कर रहे हैं, उससे कम से कम राष्ट्रीय एकता को तो मजबूती मिलेगी, जो उस दौर में भाषाई, प्रांतीय विभाजनकारी राजनीति का जवाब होगी. इसलिए कम से कम इस मौके पर तो नेहरू का समर्थन करना होगा, जो मूल रूप से छत्रपति शिवाजी का समर्थन होगा.
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इसके लिए गुरु गोलवलकर ने एक योजना बनाई. पहले जानिए कि पंडित नेहरू ने डिस्कवरी ऑफ इंडिया में शिवाजी को लेकर क्या लिखा था, “Shivaji… was a disturbing factor in the Deccan, and his activities led to much confusion and conflict there.” इतना ही नहीं उन्होंने शिवाजी को पथभ्रष्ट देशभक्त (Misguided Patriot) लिखकर बहुत छोटा करके अपनी किताब में प्रस्तुत कर दिया था. ना उनके विचार लिखे, ना उनके सपने और ना ही उनकी आम लोगों के स्वराज की लड़ाई की गहराई.

बावजूद इसके गोलवलकर ने उस वक्त जितने भी संघ से जुड़े संगठन उस क्षेत्र में सक्रिय थे, संघ, जनसंघ, विद्यार्थी परिषद, मजदूर संघ, राष्ट्र सेविका समिति आदि के स्वयंसेवकों के जरिए घर घर एक पत्र भिजवाया. इस पत्र की कई लाख कॉपियां छपीं और उन्हें कई लाख घरों तक पहुंचाया गया. गुरु गोलवलकर ने ये पत्र हिंदी और मराठी दोनों में लिखा था, ताकि ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंच सके.
इस पत्र रूपी बयान में गुरु गोलवलकर ने लिखा था, “मैं केवल आश्चर्यचकित ही नहीं बल्कि दुखी भी हूं कि संयुक्त महाराष्ट्र समिति ने प्रतापगढ़ किले में लगने वाली छत्रपति शिवाजी महाराज की मूर्ति के अनावरण का बड़े पैमाने पर विरोध का कार्यक्रम बनाया है. ये समिति जो कांग्रेस का विरोध करने के लिए बनाई गई थी, संयुक्त महाराष्ट्र के लोकप्रिय नारे के साथ एकजुट हुई थी, विरोधाभासों से भरी हुई है. समिति को ये अहसास ही नहीं है कि इस कार्यक्रम का विरोध कर वो शिवाजी महाराज का अपमान कर रही है और भारत की इस महान और वीर विभूति के सम्मान को नष्ट कर रही है”.
उन्हें नेहरू के प्रति लोगों की नाराजगी की भी भान था, आगे लिखा था, “पंडित नेहरू के द्वारा इस प्रतिमा का अनावरण करवाकर कांग्रेस पार्टी यहां फिर से अपनी जड़ें मजबूत करना चाहती है, जो कांग्रेस नेतृत्व की महाराष्ट्र विरोधी भावनाओं के चलते बुरी तरह हिल चुकी हैं. छत्रपति शिवाजी के प्रति अपने सम्मान को व्यक्त करने के बजाय दोनों पक्ष अपनी अपनी राजनैतिक खिचड़ी पका रहे हैं. मेरा स्पष्ट मत है कि हमें इस कार्यक्रम को भव्य तरीके से आयोजित होने देना चाहिए, और किसी भी तरह के विरोध से दूर रहना चाहिए.”
उन्होंने अगली लाइनों में वो वजह बताई जिसके लिए वो इस कार्यक्रम के विरोध के खिलाफ थे. उन्होंने लिखा कि, “ये कार्यक्रम इस तथ्य को स्थापित करेगा कि शिवाजी महाराज का किरदार इतना महान और उदार था कि जो पंडित नेहरू उनका अपमान करके खुश होते थे, एक दिन उन्हें शिवाजी की प्रतिमा का अनावरण करके उनके पवित्र जीवन को सम्मान देने को मजबूर होना पड़ा था….”. अंत में गुरु गोलवलकर की सारे महाराष्ट्र वासियों से अपील थी कि इस कार्यक्रम को भव्यतम बनाने में हृदय तल से समर्थन दें ताकि हमेशा के लिए लोगों के हृदयों में अंकित हो जाए.
इसका असर पड़ा भी. जो विरोध आम लोगों के बीच आंदोलन की शक्ल लेता जा रहा था, गुरु गोलवलकर के पत्र रूपी बयान के बाद बंद हो गया. उन लोगों पर भी असर पड़ा जो इस आंदोलन को बड़ा करने की तैयारियों में लगे थे, लेकिन कहीं ना कहीं या तो संघ से जुड़े थे या फिर संघ के समर्थक थे. उन सबने आंदोलन से अपना हाथ खींच लिया. लेकिन कुछ लोग ऐसे भी थे, जिनके लिए संघ जितना बड़ा दुश्मन था, उतनी ही कांग्रेस, सो उन लोगों ने गुरु गोलवलकर की अपील पर कोई ध्यान नहीं दिया और जब पंडित नेहरू आए तो उन्हें कुछ जगहों पर काले झंडे भी दिखाए. हालांकि संघ के समर्थन के बाद पंडित नेहरू आश्वस्त थे कि विरोध बड़ा नहीं होगा.
लेकिन संघ प्रमुख के मैदान में कूदने से पंडित नेहरू को ये अनुमान तो हो ही चुका था कि मराठी जनता और देश भर में फैले शिवाजी समर्थक उनकी टिप्पणियों से काफी नाराज हैं. सो प्रतापगढ़ किले में छत्रपति शिवाजी की प्रतिमा के अनावरण के बाद पंडित नेहरू ने उनको भी सम्बोधित किया और बाकायदा माफी मांगी. उन्होंने माना कि जेल में बंद रहने के दौरान उन्होंने ये किताब लिखी थी, तब उनके पास संदर्भ लेने या तथ्य जांचने के लिए बाकी किताबों की सुविधा अंदर नहीं थी. उनको मराठा इतिहास भी कम पता था, जिसके चलते उन्होंने वो सब लिख दिया था.
नेहरूजी के शब्दों में, “I have read and heard the feelings of the people of Maharashtra about some words I wrote in my book The Discovery of India. That book was written in the loneliness of jail, without full access to the richness of our history. If those words have hurt the sentiments of any son or daughter of India, I regret them deeply. I withdraw them unreservedly. I now see Shivaji Maharaj in his true light—not as a disturber, but as a unifier, a defender of the weak, and a pioneer of independence. The whole country is proud of him, and I am proud to unveil this statue as a tribute to his eternal glory”.
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