न दुर्वासा ने दिया श्राप, न मछली ने निगली थी अंगूठी… क्या है दुष्यंत-शकुंतला के विवाह की कहानी

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महाभारत की कथा की सबसे बड़ी खासियत यह है कि, यह कथा अपने साथ सभी पुराणों में शामिल कथाओं के संक्षिप्त वर्णन को साथ लेकर चलती है. इस कथा में वेदों का मर्म, शास्त्र, नीतियां और उनकी व्याख्या भी है. ये गाथा अपने आप में इतनी संपूर्ण है कि व्यासजी की इस रचना के विषय में यह कहा जाता है कि जो भारत में है वह सबकुछ महाभारत में है और जो महाभारत में नहीं है, वह संसार में और कहीं नहीं है.

नैमिषारण्य में ऋषियों को कथा सुनाते हुए उग्रश्रवा जी ने उन्हें बताया कि कौरव और पांडव कुल के वंश में जन्मे महापुरुषों और इस कथा में भूमिका निभाने वाले अन्य किरदारों का जन्म कैसे हुआ. उन्होंने बताया कि श्रीभगवान नारायण के अंश से वसुदेव जी के पुत्र रूप में श्रीकृष्ण और शेषनाग के अंश से बलराम का जन्म हुआ. खुद सनत्कुमार, श्रीकृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न के रूप में जन्मे थे. अप्सराओं के अंश से 16 हजार स्त्रियों का जन्म हुआ, जिनका जरासंध ने अपहरण कर लिया था. देवी लक्ष्मी के ही अंश से राजा भीष्मक के घर देवी रुक्मिणी का जन्म हुआ. राजा भीष्मक खुद समुद्र के अंश से जन्मे थे.

देवराज इंद्र की पत्नी इंद्राणी शचि के अंश से पांचाल नरेश द्रुपद के घर में द्रौपदी प्रकट हुईं. उनका जन्म यज्ञ की अग्नि से हुआ था, इसलिए उनके व्यक्तित्व में वही आग थी. कुंती और माद्री के रूप में सिद्धि और धृतिका का जन्म हुआ था. इन दोनों ने महाराज पांडु से विवाह किया था और पांडवों की माता कहलाईं. राजा सुबल की पुत्री गांधारी के रूप में मति का जन्म हुआ था. इस तरह देवता और गंधर्व अपने-अपने अंश से मनुष्यों में जन्मे थे.

उग्रश्रवाजी बोले- अपने पूर्वजों और महाभारत के मुख्य पात्रों के जन्म का रहस्य सुनने के बाद राजा जन्मेजय ने वैशंपायन जी से कहा- हे महात्मा वैशंपायन! मैंने आपके श्रीमुख से यह जाना कि किस देवता, गंधर्व, राक्षस, असुर और अप्सरा ने अपने अंश से किस पात्र के रूप में जन्म लिया. अब मैं आपसे अपने कुरुवंश की उत्पत्ति का वर्णन सुनना चाहता हूं.

वैशंपायन जी बोले- राजन! कुरुवंश की उत्पत्ति से पहले आपको पुरुवंश के एक प्रतापी राजा की कथा सुननी चाहिए. इसका नाम था दुष्यंत. वह ऐसा महान और चक्रवर्ती था कि उसने सिर्फ समुद्री सीमाओं से घिरे देश ही नहीं, बल्कि उसके पार भी अपनी विजय पताका लहरायी थी. वह अपनी प्रजा का पालन बहुत ही ममता, योग्यता और पिता की तरह करते थे. उनके राज्य में सुख था. खेती और भोजन के लिए आवश्यक श्रम से अधिक परिश्रम नहीं था. पाप की जगह नहीं थी. धर्म का पालन था और धर्म के पालन से ही मिले अर्थ (धन) से जीवन यापन था. प्रजा संतुष्ट थी. अन्न सरस, फल मधुर और वर्षा समय पर होती थी. खेती के प्राप्त अनाज में अर्धांश, दसांश और सवांश का वितरण था, जिससे कि मनुष्य ही नहीं बल्कि जीव-जंतु, खग-विहंग (पक्षी) आदि भी प्रसन्न थे.

उनके राज्य में पाखंड नहीं था, इसकी जगह तर्क शक्ति और मेधा शक्ति का बोलबाला था. गुणी जनों का सम्मान था. प्रजा भी कला प्रेमी थी, स्वयं राजा दुष्यंत इन विषयों में रुचि रखते थे. वह शक्तिशाली थे, गदायुद्ध और बाण विद्या में निपुण थे. प्रबल अश्वारोही थे और मस्त हाथी को भी नियंत्रित कर लेना उनकी विशेषता थी. सिंह से भी भय न रखने वाले ऐसे थे चक्रवर्ती सम्राट दुष्यंत.

इन्हीं दुष्यंत की प्राणप्रिया पत्नी का नाम था शकुंतला. महाराज दुष्यंत और शकुंतला का गंधर्व विवाह हुआ था, लेकिन इस विवाह में संघर्ष भी था. दोनों ही शिव-पार्वती के समान एक-दूसरे के पूरक थे. राजन जनमेजय! मैं आपको दुष्यंत और शकुंतला के इसी गंधर्व विवाह की कथा सुनाता हूं, जो आगे चलकर आपके कुरुवंश की नींव बना.

एक बार महाराज दुष्यंत चतुरंगिणी सेना लेकर चल रहे थे. मार्ग में एक गहन वन आया. इस वन की सघनता में महाराज आगे बढ़ गए और सेना पीछे रह गई. राजा आगे बढ़ते रहे. वन को पार करने पर सामने एक सरोवर था. उसी से किनारे लगा हुआ एक उपवन था और इसी उपवन की मनोरम छांव में एक रमणीक आश्रम बसा हुआ था.

यह आश्रम मालिनी नदी के तट पर था. ऋषिगण होम कर रहे थे. यज्ञ की पवित्र आहुति से वातावरण सुगंधित था और ऐसा लग रहा था कि ब्रह्नलोक ही नीचे उतर आया हो. राजन ने इस आश्रम में प्रवेश किया. यह कण्व ऋषि का आश्रम था, परंतु वह उस समय वहां नहीं थे. उन्होंने ऊंचे स्वर में आवाज लगाई कि यहां कोई है? यह पुकार सुनकर एक षोडशी कन्या, लक्ष्मी के जैसी शोभा वाली और दिव्य तापस वेश धारण किए हुए सामने आई. उसने राजचिह्न देखकर महाराज दुष्यंत का स्वागत-सत्कार किया.

कन्या ने राजन को शीतल जल पिलाया, नैवेद्य अर्पित किया और इस तरह उन्हें आराम से बैठाकर कन्या ने उनका परिचय, आने का कारण और कुशलता पूछी. राजा दुष्यंत कन्या के सभी कार्यों को देख रहे थे. उनकी मधुर वाणी, अनुपम सौंदर्य, आतिथ्य सेवा और कार्य कुशलता से वह मोहित हुए बिना नहीं रह सके. उन्होंने अपने विषय में कुशलता आदि बताकर कहा- मैं वन में भटक गया था और इस आश्रम तक आ पहुंचा. पता चला का यह महर्षि कण्व का आश्रम है. इसलिए उनके दर्शन की इच्छा है. क्या वह कहीं गए हुए हैं?

शकुंतला ने बहुत मोहक वाणी से कहा- जी वह फल-फूल आदि लेने गए हैं. घड़ी भर में आते होंगे, आप प्रतीक्षा कीजिए. तब महाराज दुष्यंत ने शकुंतला से पूछा- देवी! आप कौन हैं? यहां क्यों हैं? आपके पिता कौन हैं? मैं आपके विषय में जानना चाहता हूं.

शकुंतला ने बड़ी विनम्रता से कहा- हे राजन! मैं महर्षि कण्व की पुत्री हूं. तब राजा ने कहा- यह आप क्या कह रही हैं कल्याणी? विश्व में पूजनीय महर्षि कण्व अखंड ब्रह्मचारी हैं, फिर आप उनकी पुत्री कैसे हो सकती हैं. आपकी माता कौन हैं, महर्षि कण्व की पत्नी कौन हैं?

शकुंतला ने कहा- आप सत्य कहते हैं राजन! लेकिन, मैं जो कुछ कह रही हूं वह भी असत्य नहीं हैं. बाल्यकाल में मेरे पिता ने मेरे जीवन और जन्म का रहस्य बताया था. उन्होंने एक ऋषि के पूछने पर मेरी जो जन्मकथा कही, उसे सुनिए. एक समय था कि परमप्रतापी महाऋषि राजर्षि विश्मामित्र अखंड तपस्या कर रहे थे. उनके इस महान तप से देवताओं के राजा इंद्र को भय हुआ तो उन्होंने अप्सरा मेनका को ऋषि के तप का खंडन करने भेजा.

इंद्र के कहे अनुसार मेनका आईं और अपने प्रयोजन में सफल हुईं. विश्वामित्र और मेनका के संयोग से ही मेरा जन्म हुआ. माता को प्रयोजन सिद्ध होने पर स्वर्गलोक में वापसी करनी ही पड़ी. वह वन में ही मुझे छोड़कर चली गई थीं. तब शकुंत पक्षियों (बाज) ने वन के हिंसक पशुओं से मेरी रक्षा की. इसी स्थिति में मैं महर्षि कण्व को मिली तो वह मुझे आश्रम ले आए और मेरा माता-पिता दोनों की ही तरह पालन किया. इस तरह मैं उनकी ही पुत्री हूं. शरीर का जनक, प्राणरक्षक और अन्नदाता, यह तीनों ही पिता कहलाते हैं. महर्षि कण्व भले ही मेरे जन्म पिता नहीं हैं, लेकिन वह मेरे प्राण रक्षक और अन्नदाता तो हैं ही और मुझसे अमिट प्रेम भी करते हैं. इसलिए वह मेरे प्राणप्रिय पिता हैं.

यह पूरा वृत्तांत सुनकर, राजा दुष्यंत ने शकुंतला से कहा- कल्याणी! जैसा तुम कह रही हो, उसके अनुसार तुम ब्राह्मण कन्या नहीं, राज कन्या हो. क्योंकि राजर्षि विश्वामित्र पूर्व में राजा ही थे. इसलिए मैं तुमसे विवाह निवेदन करता हूं. क्या तुम मुझसे विवाह करके मुझे धन्य करोगी? यह सुनकर शकुंतला लाज से सिमटकर कुछ पीछे हो गई और फिर बोली- अतिथि देव! इसमें कोई शंका नहीं कि मैं राजकन्या हूं, लेकिन मेरे पिता कण्व ऋषि आश्रम में नहीं हैं, ताकि वह मेरा वाग्दान (विवाह के लिए दिया जाने वाला वचन) कर सकें.

तब राजा ने कहा- देवी! राजाओं के लिए गंधर्व विवाह श्रेष्ठ और मान्य है. तुम इसी तरह मेरा वरण करो. मनुष्य स्वतंत्र रूप से ही स्वयं का हितैषी है. इसलिए तुम स्वयं इसका निर्णय करो. यह सुनकर देवी शकुंतला ने कहा- अगर आपके अनुसार यह धर्मपथ है तो यही उत्तम, लेकिन मेरी शर्त सुन लीजिए. आप यह प्रतिज्ञा कर लीजिए कि आपके बाद हमारा ही यह पुत्र सम्राट होगा और मेरे जीवनकाल में ही युवराज बन जाएगा. आप ऐसा कहें तो मैं वरण के लिए तैयार हूं. राजा ने बिना देरी किए यह प्रतिज्ञा कर ली और गंधर्व विवाह कर लिया. इसके बाद दोनों में समागम हुआ. जब राजा राजधानी लौटने के लिए चले तब उन्होंने बार-बार यह विश्वास दिलाया वह शीघ्र ही चतुरंगिणी सेना महर्षि के पास भेजेंगे और उनसे तुम्हें राजधानी बुलवा लेंगे. ऐसा कहकर महाराज दुष्यंत लौट आए.

उधर, जब ऋषि कण्व आश्रम पहुंचे तो लाज के कारण शकुंतला उनके सामने न आती थी. तब ऋषि ने अपनी दिव्य दृष्टि से सारा सत्य जान लिया और फिर बोले- पुत्री! तुमने यह धर्म के अनुकूल आचरण ही किया है. यही उत्तम है. इसमें कोई दोष नहीं है. मैं सम्राट दुष्यंत को आशीष देता हूं कि उनकी बुद्धि धर्म में अविचल रहे. तुम्हारे गर्भ से उनका यशस्वी और बलशाली पुत्र जन्म लेगा. वह भारत का भाग्य होगा. समस्त पृथ्वी का राजा होगा और पृथ्वीपति कहलाएगा. वह तुम्हें और दुष्यंत दोनों को धन्य करेगा. उसका रथ कहीं नहीं रुकेगा. दुष्यंत को धर्म का फल मिले, ऐसा आशीष देता हूं.

(महाभारत में वर्णन है कि, शकुंतला के गर्भ से तीन वर्ष बाद दुष्यंत पुत्र भरत का जन्म हुआ.

गर्भं सुषाव वामोरूः कुमारममितौजसम् । ।1 । ।

त्रिषु वर्षेषु पूर्णेषु दीप्तानलसमद्युतिम्

रूपौदायगुणोपेतं दौष्यन्तिं जनमेजय । ।2 । ।

जनमेजय! पूरे तीन वर्ष बीत जाने के बाद सुदर जांघ वाली शकुंतला ने अपने गर्भ से अग्नि के समान तेजस्वी, रूप और उदारता आदि गुणों से संपन्न,

अमित पराक्रमी कुमार को जन्म दिया, जो दुष्यंत के वीर्य से उत्पन्न हुआ था. )

वैशंपायन जी बोले- राजा जनमेजय! समय अपनी गति से बदलता रहा. शकुंतला ने कण्व ऋषि के आश्रम में बड़े ही दिव्य पुत्र को जन्म दिया. वह जब घुटवन चलता था तब भी बहुत निडर था और हिंसक पशुओं को देखकर कभी भयभीत नहीं हुआ. बड़े होते-होते उसकी निडरता दिनों-दिन बढ़ती गई. 3 वर्ष का होते-होते वह सिंह शावकों के साथ मल्ल (कुश्ती) करने लगा और चार-पांच वर्ष की अवस्था में शेरनी के दूध पीते बच्चों को उससे छुड़ा लिया करता था और उनके मुख में उंगली डालकर उनके दांत गिनता था. फिर समझाता- मां का दूध पिया करो, शावकों- मां का दूध अमृत है, दांत जल्दी आएंगे.

छह वर्ष का होते-होते वह बड़े सिंहों को भी नियंत्रित करने लगा और उनकी पीठ पर सवार हो जाता था. सारा आश्रम भरत के साथ ही बालपन जीता था और उसकी निडरता को देखकर पुलकित होता रहता था. महर्षि कण्व उसे देखते तो उनकी भविष्यवाणी सामने ही सत्य का रूप धारण किए दिखाई देती थी. शकुंतला का छह साल का बालक सिंह, बाघ, जंगली शूकर, हाथियों को डपटता, किसी को पटकता और किसी को आश्रम के वृक्ष से बांधकर असहाय कर देता था. उसकी इस शक्ति को देखकर ऋषि ने उसका नामकरण संस्कार किया और नाम रखा- सर्वदमन…

इसी तरह कुछ दिन और बीते. जनमेजय! एक दिन ऋषि कण्व ने कहा- शकुंतले! अब तुम्हारा यह पुत्र युवराज होने के योग्य हो चुका है. इसलिए तुम सर्वदमन को लेकर हस्तिनापुर की यात्रा करो. यूं भी विवाह के बाद पुत्री का बहुत दिनों तक इस तरह पिता के घर रहना भी धर्म और सामाजिक मर्यादा के विरुद्ध है. ऋषि की बात मानकर शकुंतला ने हस्तिनापुर की यात्रा की.

वहां राजसभा में प्रस्तुत होकर उसने खुद का परिचय दिया और अपने साथ लाए बालक का परिचय महाराज के पुत्र के रूप में कराया. कहा- महाराज! यह आपका पुत्र है, अब आप इसे युवराज पद दीजिए और अपनी प्रतिज्ञा पूरी कीजिए. शकुंतला से इस तरह की बात सुनकर सम्राट दुष्यंत की त्योरियां चढ़ गईं. उन्होंने शकुंतला को दुर्वचन कहते हुए कहा- अरी हठीली तापसी! मुझे ऐसी कोई प्रतिज्ञा याद नहीं है. हालांकि उन्हें सबकुछ याद था, फिर भी उन्होंने ऐसे वचन कहे.

राजन की ऐसी बात सुनकर शकुंतला ने कहा- आप ऐसी बात क्यों कह रहे हैं? किस कारण से कह रहे हैं? क्या आप ये समझते हैं कि आपने उस घने वन में जो प्रतिज्ञा की, उसे किसी ने नहीं सुना, तो सुनिए, वह विश्वात्मा ईश्वर सबके हृदय में रहते हैं. अपने हृदय पर हाथ रखकर पूछिए कि क्या मैं असत्य कह रही हूं? अगर मेरी याचना सुनकर भी आप मेरी बात नहीं मानेंगे तो आपके सिर के सौ टुकड़े हो जाएंगे.

पत्नी के द्वारा पुत्र रूप में उसके पिता यानी स्त्री के पति का ही जन्म होता है. इसीलिए विद्वानों ने स्त्री को ‘जाया’ कहा है. फिर शकुंतला आगे कहती हैं कि- राजन, मैंने आपके प्रतापी पुत्र को तीन वर्ष तक अपने गर्भ में धारण किया है. यह आपको सुखी करेगा. इसके जन्म के समय भविष्यवाणी हुई थी कि यह बालक सौ अश्वमेध यज्ञ करेगा. मैंने जरूर पहले कोई पापकर्म किए होंगे जो जन्म लेते ही मझे मां छोड़ गईं और अब आप छोड़ रहे हैं. आपकी यही इच्छा है तो यही सही, लेकिन यह आपका पुत्र है, इसे मत छोड़िए, इसे अपना लीजिए.                                                                                                                                             

शकुंतला के इतना कहने पर भी राजा दुष्यंत उन्हें अपनाने के लिए तैयार नहीं हुए. उल्टे वह कहने लगे- इस बात का क्या प्रमाण कि यह पुत्र मेरा है? स्त्रियां तो स्वभाव से ही झूठ बोलती हैं. तुम्हारी बात पर कौन विश्वास करेगा? कहां अप्सरा मेनका, कहां विश्वामित्र, कहां ऋषि कण्व और कहां तुम. चली जा यहां से. इतने थोड़े दिनों में यह बालक शाल के वृक्ष जितना बड़ा कैसे हो सकता है, जबकि तुम कहती हो कि यह छह-सात वर्ष का है.

शकुंतला ने कहा- राजन! कपट न करो. सत्य सभी यज्ञों और तीर्थों से श्रेष्ठ है. सत्य ही सृष्टि का आधार है और झूठ से निंदनीय कुछ नहीं. इसलिए मैं आपसे कहती हूं कि अपनी प्रतिज्ञा मत तोड़ो. अगर तुम्हें झूठ से ही प्रेम है तो मेरी बात मत मानो. मैं झूठे के साथ नहीं रह सकती हूं. तुम इस बालक को अपनाओ या नहीं, लेकिन मैं कहे देती हूं कि एक दिन यही बालक सारी पृथ्वी पर शासन करेगा. यह बात कल भी सत्य थी और समय आने पर भविष्य में भी सत्य होगी. अब मैं यहां से जाती हूं. इतना कहकर शकुंतला अपने पुत्र का हाथ पकड़कर राजसभा से जाने लगी.

शकुंतला के वहां से चलते ही, ऋत्विजों, पुरोहित आचार्यों और मंत्रियों की सभा में बैठे दुष्यंत को संबोधित करती हुई आकाशवाणी होने लगी, जिसे सभी ने सुना- आकाशवाणी ने कहा- ‘चक्रवर्ती दुष्यंत! पुत्र पिता का ही होता है क्योंकि पुत्र के रूप में पिता ही उत्पन्न होता है, शकुंतला की यह बात सर्वथा सत्य है. इसी तरह यह भी सत्य है कि यह तुम्हारा ही पुत्र है. तुमने ही इसका गर्भाधान किया है. तुम अपने पुत्र का पालन करो. इसका पोषण करो. शकुंतला सत्य कहती है. तुम्हारे भरण-पोषण करने से इसका नाम भरत होगा और भविष्य में प्रजा का उचित भरण-पोषण कर यह अपना भरत नाम सार्थक करेगा.’

आकाशवाणी से ऐसा सुनकर दुष्यंत आनंद से भर गए. उन्होंने पुरोहितों और मंत्रियों से कहा- आप लोग अपने कानों से यह देववाणी सुन लें. आकाश शकुंतला को मेरी पत्नी और इस बालक को मेरा पुत्र बता रही है. मैं भी यह बात जानता हूं, लेकिन अगर सिर्फ शकुंतला के कहने भर से मैं इसे स्वीकार कर लेता तो आप राज समाज समेत सारी प्रजा मुझ पर संदेह करती. शकुंतला पर भी आक्षेप लगते कि उसने रूपजाल में मुझे फांस लिया और मुझसे जो चाहे करवा रही है. फिर किसी भी तरह उसका कलंक नहीं छूटता.

यह कहते-कहते राजा दुष्यंत ने सभा में आगे बढ़कर शकुंतला को रोक लिया. सभी के सामने धर्म के अनुसार उनका पाणिग्रहण किया और बालक सर्वदमन, जिसका नया नाम अब भरत था, उसे गोद में लेकर उसका मस्तक चूम लिया. उन्होंने शकुंतला से भी कहा- मैं यूं ही तुम्हें स्वीकार कर लेता तो तुम संदेह की दृष्टि में घिरी रहती. यूं भी राजा और युवराज सिर्फ वंशबेल के होने से राज्य के अधिकारी नहीं होते, यह पद तो कर्म के ही अधीन होता है. मैंने वन के एकांत में प्रेम के वशीभूत होकर तुम्हारे सामने जो प्रतिज्ञा की, तुमने उसका मान रखा और देखो तुमने हमारे पुत्र का कितना सुंदर विकास किया है. वह सच में ही पृथ्वी पति बनेगा. मुझे तुम पर और इस पर गर्व है. मैं तुम्हारा ऋणी हूं देवी. मुझे क्षमा करो और इस राजप्रसाद (राजमहल) के रनिवास (रानी के निवास) को धन्य करो. शकुंतला ने यह सब सुनकर दुख के आंसू पोंछे. देवताओं को धन्यवाद किया और हर्ष के साथ पति का साथ स्वीकार किया.

आगे युवराज के पद पर भरत का अभिषेक हुआ. समय आने पर वह चक्रवर्ती सम्राट बने और पृथ्वीपति कहलाए. दूर-दूर तक भरत का शासन-चक्र प्रसिद्ध हो गया. उसने इंद्र के समान अनेक यज्ञ किया और धरेंद्र कहलाया, यानि धरती का इंद्र. इन्हीं भरत चक्रवर्ती के नाम पर तीन ओर से समुद्र से घिरे इस भूखंड का नाम भारत हुआ. इसे भारती भी कहा गया. यह उपनाम उन्हीं की वजह से मिला और भरत के बाद और उससे पहले भी इस कुल में जन्म लिए सभी राजा भारत कहलाए. कुरुवंश को भी एक नाम भरतवंश मिला.

राजा जनमेजय ने वैशंपायन मुनि से यह महान गाथा सुनकर चक्रवर्ती सम्राट दुष्यंत के पुत्र महाचक्रवर्ती भरत को अपना पूर्वज जानकर मन ही मन प्रणाम किया. आज वह यह जानकर हर्षित हो रहा था कि उसे पुकारा जाने वाले ‘भारत’ संबोधन कितना महान और पवित्र है. वह खुद को ‘भारत जनमेजय’ कहकर पूर्वजों के प्रति कृतज्ञ हो गया. महात्मा वैशंपायन दुष्यंत-शकुंतला का प्रसंग सुनाकर कुछ देर रुके और फिर आगे की कथा कहने की तैयारी करने लगे.

नोट- महाभारत में दुष्यंत और शकुंतला का प्रसंग इसी तरह से आया है. इसमें कहीं भी ऋषि दुर्वासा के श्राप का जिक्र नहीं है, जिसके कारण राजा दुष्यंत शकुंतला को भूल जाते हैं. महाभारत के आदि पर्व में ही शामिल इस प्रसंग में शकुंतला खुद ही दुष्यंत को अपने जन्म का रहस्य बताती है. इसके अलावा इसमें मछली के पेट से अंगूठी मिलना, दुष्यंत का वन में जाकर बालक भरत को देखना जैसी किसी घटना का उल्लेख नहीं है. महाभारत में बताया गया है कि दुष्यंत कुछ भी भूला नहीं था, लेकिन वह जानबूझकर शकुंतला को पहले अपनाने से इनकार करता है और फिर आकाशवाणी होती है, जिसके बाद वह शकुंतला और अपने पुत्र को अपना लेता है.

महाकवि कालिदास ने महाभारत से ही प्रेरणा लेकर ‘अभिज्ञान शाकुंतलम्’ नाम से संस्कृत नाटक लिखा था. उन्होंने इसमें सात अंक लिखे और इसे नवरसों से सजाया था. इसी क्रम में उन्होंने कहानी को विस्तार देने के लिए और इसमें मानवीय भावों को लाने के लिए इसे दैवीय घटनाओं से दूर रखा. उन्होंने ऋषि दुर्वासा का किरदार गढ़ा, श्राप की भूमिका रची और इसी के आधार पर नाटक का कथानक भी रचा गया. दुर्वासा के श्राप के कारण ही दुष्यंत, शकुंतला से गंधर्व विवाह की बात भूल जाता है और उसे अपमानित करके निकाल देता है. शकुंतला वन में अकेले ही रहकर अपने बालक को जन्म देती है और उसका पालन-पोषण करती है. उधर, मछुआरे राजा दुष्यंत को मछली के पेट से मिली अंगूठी लाकर दिखाते हैं. दुष्यंत को सब याद आ जाता है.

एक दिन दुष्यंत किसी तरह भटकते हुए उस वन में पहुंचते हैं, जहां एक बालक शेर के बच्चों के साथ खेल रहा था. उस बालक की बांह में एक काला धागा बंधा था. ये उसकी मां ने राक्षसों से सुरक्षा के लिए बांध रखा था. अगर बालक को उसके पिता के अलावा कोई और गोद में लेता या उसकी बांह भी पकड़ता तो बांह पर बंधा काला धागा, काला नाग बनकर उसे डंस लेता था. दुष्यंत उस बालक के पास जाता है और बहुत ही प्यार से उसे गोद में उठा लेता है. यह देख शकुंतला की सखी चौंक जाती है. उधर, दुष्यंत उस बालक के साथ उसकी मां के पास पहुंचता है, जहां तीनों का मिलन होता है. दु्र्वासा का श्राप कट जाता है और दुष्यंत-शकुंतला और भरत फिर से एक साथ हो जाते हैं.

पहला भाग : कैसे लिखी गई महाभारत की महागाथा? महर्षि व्यास ने मानी शर्त, तब लिखने को तैयार हुए थे श्रीगणेश 
दूसरा भाग :
राजा जनमेजय और उनके भाइयों को क्यों मिला कुतिया से श्राप, कैसे सामने आई महाभारत की गाथा?
तीसरा भाग : राजा जनमेजय ने क्यों लिया नाग यज्ञ का फैसला, कैसे हुआ सर्पों का जन्म?
चौथा भाग : महाभारत कथाः नागों को क्यों उनकी मां ने ही दिया अग्नि में भस्म होने का श्राप, गरुड़ कैसे बन गए भगवान विष्णु के वाहन?
पांचवा 
भाग : कैसे हुई थी राजा परीक्षित की मृत्यु? क्या मिला था श्राप जिसके कारण हुआ भयानक नाग यज्ञ
छठा भाग : महाभारत कथाः  नागों के रक्षक, सर्पों को यज्ञ से बचाने वाले बाल मुनि… कौन हैं ‘आस्तीक महाराज’, जिन्होंने रुकवाया था जनमेजय का नागयज्ञ
सातवाँ भाग : महाभारत कथाः तक्षक नाग की प्राण रक्षा, सर्पों का बचाव… बाल मुनि आस्तीक ने राजा जनमेजय से कैसे रुकवाया नागयज
आठवाँ भाग : महाभारत कथा- मछली के पेट से हुआ सत्यवती का जन्म, कौन थीं महर्षि वेद व्यास की माता?
नौवां भाग : महाभारत कथा- किस श्राप का परिणाम था विदुर और भीष्म का जन्म, किन-किन देवताओं और असुरों के अंश से जन्मे थे कौरव, पांडव